بين ريتا وعيوني.. بندقيهْ | |
والذي يعرف ريتا ، ينحني | |
ويصلي | |
لإلهٍ في العيون العسليّهْ! | |
.. وأنا قبّلت ريتا | |
عندما كانت صغيره | |
وأنا أذكر كيف التصقتْ | |
بي، وغطّت ساعدي أحلى ضفيره | |
وأنا أذكر ريتا | |
مثلما يذكر عصفورٌ غديره | |
آه .. ريتا | |
بيننا مليون عصفور وصوره | |
ومواعيد كثيره | |
أطلقتْ ناراً عليها.. بندقيّهْ | |
إسمُ ريتا كان عيداً في فمي | |
جسم ريتا كان عرساً في دمي | |
وأنا ضعت بريتا .. سنتينِ. | |
وهي نامت فوق زندي سنتين | |
وتعاهدنا على أجمل كأس ، واحترقنا | |
في نبيذ الشفتين | |
وولدنا مرتين! | |
آه .. ريتا | |
أي شيء ردّ عن عينيك عينيَّ | |
سوى إغفائتين | |
وغيوم عسليّهْ | |
قبل هذي البندقيهْ! | |
كان يا ما كان | |
يا صمت العشيّهْ | |
قمري هاجر في الصبح بعيداً | |
في العيون العسليّهْ | |
والمدينة | |
كنست كل المغنين ، وريتا | |
بين ريتا وعيوني . بندقيّهْ |
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